शोभित जैन
आज यादों के झरोखे से फिर एक कविता (तुकबंदी) निकाल कर लाया हूँ...कालिज कि कैंटीन में चाय पीते पीते बस यूँ ही हाथ चले और कागज पर कुछ लिख दिया ...
आज मन किया तो ब्लॉग पर भी छाप रहा हूँ...

दीदार
सावन के महीने में...जब दिल धड़का था सीने में,
नशा बाकी बचा पीने में, मजा आने लगा जीने में,
उन दिनों यह बात हुई,
कालेज में पहली मुलाकात हुई...
हुस्न जैसे जमीं पर उतर आया था,
हूर थी या कोई अप्सरा का साया था...
तारीफ को शब्द मिले किताबों में,
आने लगी फिर वो, हर रात ख्वाबों में...
हर रोज़ वो कालेज में सीढ़ी के पास मिलती थी,
शायद वो किसी का इंतज़ार करती थी..
शायद वो भी किसी से प्यार करती थी,
या खुदा वो उससे यूँ ही प्यार करती रहे..
हर रोज़ उसका वहीँ इंतज़ार करती रहे..
हमारा दिल भी बेकरार होता रहे..
कुछ हो हो दीदार होता रहे..

या खुदा करना कबूल गर पाकीज़गी हो फरियाद में,
एक हसीं किस्सा जुड़ जायेगा हमारे कालिज कि याद में....

नोट:- इस कविता के सभी पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक हैं, यदि किसी जीवित व्यक्ति से इसका सम्बन्ध पाया जाता है तो इसे हमारी खुशकिस्मती समझा जाये (संयोग नहीं)
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