आज यादों के झरोखे से फिर एक कविता (तुकबंदी) निकाल कर लाया हूँ...कालिज कि कैंटीन में चाय पीते पीते बस यूँ ही हाथ चले और कागज पर कुछ लिख दिया ...
आज मन किया तो ब्लॉग पर भी छाप रहा हूँ...
दीदार
सावन के महीने में...जब दिल धड़का था सीने में,
नशा बाकी न बचा पीने में, मजा आने लगा जीने में,
उन दिनों यह बात हुई,
कालेज में पहली मुलाकात हुई...
हुस्न जैसे जमीं पर उतर आया था,
हूर थी या कोई अप्सरा का साया था...
तारीफ को शब्द न मिले किताबों में,
आने लगी फिर वो, हर रात ख्वाबों में...
हर रोज़ वो कालेज में सीढ़ी के पास मिलती थी,
शायद वो किसी का इंतज़ार करती थी..
शायद वो भी किसी से प्यार करती थी,
या खुदा वो उससे यूँ ही प्यार करती रहे..
हर रोज़ उसका वहीँ इंतज़ार करती रहे..
हमारा दिल भी बेकरार होता रहे..
कुछ हो न हो दीदार होता रहे..
या खुदा करना कबूल गर पाकीज़गी हो फरियाद में,
एक हसीं किस्सा जुड़ जायेगा हमारे कालिज कि याद में....
नोट:- इस कविता के सभी पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक हैं, यदि किसी जीवित व्यक्ति से इसका सम्बन्ध पाया जाता है तो इसे हमारी खुशकिस्मती समझा जाये (संयोग नहीं)
आज मन किया तो ब्लॉग पर भी छाप रहा हूँ...
दीदार
सावन के महीने में...जब दिल धड़का था सीने में,
नशा बाकी न बचा पीने में, मजा आने लगा जीने में,
उन दिनों यह बात हुई,
कालेज में पहली मुलाकात हुई...
हुस्न जैसे जमीं पर उतर आया था,
हूर थी या कोई अप्सरा का साया था...
तारीफ को शब्द न मिले किताबों में,
आने लगी फिर वो, हर रात ख्वाबों में...
हर रोज़ वो कालेज में सीढ़ी के पास मिलती थी,
शायद वो किसी का इंतज़ार करती थी..
शायद वो भी किसी से प्यार करती थी,
या खुदा वो उससे यूँ ही प्यार करती रहे..
हर रोज़ उसका वहीँ इंतज़ार करती रहे..
हमारा दिल भी बेकरार होता रहे..
कुछ हो न हो दीदार होता रहे..
या खुदा करना कबूल गर पाकीज़गी हो फरियाद में,
एक हसीं किस्सा जुड़ जायेगा हमारे कालिज कि याद में....
नोट:- इस कविता के सभी पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक हैं, यदि किसी जीवित व्यक्ति से इसका सम्बन्ध पाया जाता है तो इसे हमारी खुशकिस्मती समझा जाये (संयोग नहीं)
शोभित जी
चोट कहाँ खाई............
जहां भी खाई, पर आवाज़ अच्छी निकली............मजा आ गया आपकी कविता पढ़ कर
कल्पनाओं की डगर में, अटकना अच्छा नही,
भावनाओं के नगर में, भटकना अच्छा नही,
स्वार्थ के संसार में है, कामना किस काम की।
आस्था ही जब नही, आराधना किस काम की।।
aapki kavita padh par mujhe Mr. Sarwat Jamal ka ek geet yad aa gya...
koii man ko bha jaye chun leti hain
aakhon ka kya hai sapne bun leti hain.....
aapne blog par pdhaa ki nahin
khair.. mangle kaamnaayen.
शोभित जी! मैं तो टिप्पणी करना जानता ही नही।
कुछ पंक्तियाँ सप्रेम भेंट कर रहा हूँ।
काँटों की फुलवारी में, दिल को कैसे बहलाओगे?
रूखी-सूखी क्यारी में, सुख-सुमन कहाँ पाओगे?
मेरी यादों से ही, अपने मन को बहला लेना।
स्वप्न सरोवर में ही,अपने तन को नहला लेना।
यादें! यादें!! यादें!!!
सुन्दर।
dua kareinge ki apki ye 'khusfehmi' khuskismati main tabdil ho jaiye....
सुन्दर लगी आपकी यह रचना ..यादे meethi होती है
kavita naheen painting hai.
but boss kahin na kahin laye ki kami reh gaye..maslan,
"" har roz ... pyaar karti thi"" kafi unchi raftaar thi ki tabhi jhatka sa laga..aur akhri teen pankti bol di...
are saahab jab unche chadte ho to hole se neeche bhi aaya karo.. toda laye to milya karo..
..wase kafi accha likha hai...
Bhot sundar....bhot khoob lagi aapki rachna.....!!
इस कविता के सभी पात्र मुझे तो वास्तविक लग रहे हैं।एक को तो मैं जानता भी हूँ।श्री मान शोभित जी ये दूसरी पात्र कौन है?वैसे फ़िल्म "मेरे महबूब" याद आ गई.........
shobhit ji maine aapka blog dekha kafi achha likhte hain. agar aap chahe to mere blog k lie koi prerna se bhari kavita bheje.