काफी दिन हो गए इधर आये हुए ... जाने क्यूँ ब्लॉग्गिंग से कुछ दिनों के लिए मोहभंग हो गया था ...लेकिन ये भी एक नशा है जिससे कोई ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकते...तो लीजिए फिर से हाजिर हूँ एक उदास गज़ल के साथ ......शायद आप लोगो का साथ मिले तो उदासी कुछ कम हो जाये ....
'अलविदा' कसम दिलाकर कहती है, जिंदगी
निकलो तो खुद मर्जी इसकी रोक लेती है !!
सब्र नहीं रहा अब कब्र के दीदार का,
जाने कमबख्त याद वो किसकी रोक लेती है !!
दूर कहीं दूर बहुत दूर जाने की हसरत दिल में,
पलने से पहले, माँ की सिसकी रोक लेती है !!
तन्हाई का आलम साथ भी और आगे भी,
चलने से पहले, एक मीठी हिचकी रोक लेती है !!
खुदा के दर से परहेज़ नहीं मुझे, परबढ़ने से पहले, प्यारी "व्हिस्की" रोक लेती है !!
'अलविदा' कसम दिलाकर कहती है, जिंदगी
निकलो तो खुद मर्जी इसकी रोक लेती है !!
सब्र नहीं रहा अब कब्र के दीदार का,
जाने कमबख्त याद वो किसकी रोक लेती है !!
दूर कहीं दूर बहुत दूर जाने की हसरत दिल में,
पलने से पहले, माँ की सिसकी रोक लेती है !!
तन्हाई का आलम साथ भी और आगे भी,
चलने से पहले, एक मीठी हिचकी रोक लेती है !!
खुदा के दर से परहेज़ नहीं मुझे, परबढ़ने से पहले, प्यारी "व्हिस्की" रोक लेती है !!
रचनाएँ एक से बढ़ कर एक हैं...लाजवाब...
bahut achchhee lagi gazal ....jaane kab kab kya kya rok leta hai
दिल को छूती बहुत दर्द भरी गज़ल है !
'दूर कहीं दूर बहुत दूर जाने की हसरत दिल में,
पलने से पहले, माँ की सिसकी रोक लेती है!'
बहुत खूब!
http://sudhinama.blogspot.com
http://sadhanavaid.blogspot.com
बहुत बढ़िया जी,
"माँ की सिसकी रोक लेती है"
बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
कुंवर जी,
ब्लॉग जगत में बने रहिए। अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि ब्लॉग ताकत देता, अकेलापन नष्ट करता है और आत्म विश्वास भी बढाता है।
ब्लॉग जगत में बने रहिए। मेरा अनुभव है कि ब्लॉग हमारा अकेलापन नष्ट करता है, ताकत देता है और हौसला तथा आत्म विश्वास बढाता है।
ये कैसा मोहभंग था जनाब आप तो गजल की टांग खींचकर उसे भांग के नशे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ ओरिजनल लिखिये जो आपके और दूसरों के काम आये।
aanad bhai chaahte kya aap...??
बहुत बढ़िया रचना. हतोत्साहित करने वाले कमेंटस नजर अंदाज कर बेहतर लेखन जारी रहें, शुभकामनाएँ.
बहुत अच्छी ग़ज़ल है शोभित जी ... आप तो इतना अच्छा लिखते हैं .. जारी रखिए ...
ये शेर बहुत ही करीब लगा ... दूर कहीं दूर बहुत दूर जाने की हसरत .....
आप की नई पोस्ट पढ़ कर यहाँ आया। गज़ल का व्याकरण तो नहीं पता लेकिन जितना सुना है और पढ़ने से जो लगा है बता रहा हूँ:
(1) ग़ज़ल एक छ्न्द विधानबद्ध रचना होती है जिसमें पहले शेर की दो पंक्तियों की तुक मिलनी आवश्यक है। आप के शेर में नहीं है।
(2) आप ने इसे Nazm लेबल दिया है। नज़्म एक अलग प्रकार की कविता होती है जिसमें एक ही भाव को निश्चित शब्द और अर्थ लय में विस्तार दिया जाता है। ग़ज़ल में यह आवश्यक नहीं । शेर अलग अलग भाव लिए हो सकते हैं।
(3) ग़ज़ल गेय होती है अत: इसमें एकसमान लय होनी चाहिए। भाव भले अलग अलग हों लेकिन लय एक हो - छ्न्द का मीटर एक ही रहना चाहिए। जब ऐसा नहीं होता या छ्न्द की मात्राओं/ध्वनियों(सलेबल्स) में एकसारता नहीं रहती तो लयभंग की स्थिति बनती है जो कि गेय होने में बाधा है।
आप अब अपनी ग़ज़ल की स्वयं समीक्षा कर संशोधन कर लें। तकनीकी रूप से मुझे नहीं लगता कि बहुत गड़बड़ी है। वैसे इतना लेक्चर दे रहा हूँ लेकिन आज तक ग़ज़ल रचने की हिम्मत नहीं कर पाया हूँ :)। फारसी छ्न्द विधान का मुझे ज्ञान नहीं है।
अब आइए कथन की शैली, मार और भाव पक्ष पर। आप की कविता उत्तम है। कविता में यह निभ जाय तो तकनीक जाय भाँड़ में -
"माँ की सिसकी रोक लेती है...."
वाह क्या बात है!
Excellent.