२३ मार्च २००९ :-
पूरा दिन बीत गया पर चंद ब्लोग्स को छोड़कर शहीद दिवस पर कोई हलचल नज़र नहीं आई ..... आती भी कैसे ये कोई वैलेंटाइन डे थोड़े ही था .... और अपने आस पास जिसको भी इस की अहमियत बताई किसी ने कान नहीं दिया .... तब किसी कवि की ये पक्तियां याद आई
डूबे थे लोग कभी, वन्देमातरम में॥
डूबे तो है आज भी, बन्दे मात्र रम में
कोई साथ न पाकर सोचा चलो शहीद दिवस भी youtube के साथ ही मना लेते हैं ...... फिल्मों के जरिये उन महान लोगों को याद किया और दिन ख़तम .... पर रात भर दो शब्द हथोडे की तरह दिमाग में बजते रहे ... इन्कलाब जिंदाबाद .........
क्या जादू रहा होगा उन दो शब्दों में यही सोचते सोचते आँख लग गई ..... पर सोने से पहले एक सपना देखा (सोने के बाद तो सभी देखते हैं ) ... सपना क्या है एक ज़रूरत है ... ज़रूरत है हमारे देश की ..... कभी आपको भी अपने ज़रूरी कामों से थोडी सी फुर्सत मिले तो सोचना ज़रूर ....... शायद ये आपकी भी जरूरत हो ....
एक और इन्कलाब
चिर निद्रा से जाग पड़ें अब, सुबह का सूरज लाल कर दें
चलो फिर से इन्कलाब कर दें...
चिंगारिया हर जगह छुपी हैं, राख के इस ढेर में,
चलो उठ एक साथ भभकें आग का सैलाब कर दें ....
चलो फिर से इन्कलाब कर दें...
जाति, वर्ण औ क्षेत्र भूलकर, गद्दारों पर टूट पड़ें,
एक ओर 'शोभित' हल्ला बोले, एक तरफ़ इख्लाक कर दें ...
चलो फिर से इन्कलाब कर दें...
घर में गर घुसे रहे तो, घर तलक जल जाएगा,
देहरी लांघें, सड़कें मापें, चौराहों तक फैलाब कर दें ....
चलो फिर से इन्कलाब कर दें...
है नहीं आसाँ बदलना, देश की तकदीर को...
चोट से नहीं वोट से सही, कैसे भी हो कमाल कर दें...
चिर निद्रा से जाग पड़ें अब, सुबह का सूरज लाल कर दें
चलो फिर से इन्कलाब कर दें...