शोभित जैन
कुछ समय पहले लिखी हुई ये नज़्म मुझे आज भी उतनी ही ताज़ा लगती है जितनी ये पहली बार पढने में लगी थी....आशा है आप लोगो को भी पसंद आएगी !!

काफिर नही होता...

जिस चेहरे को हया का रंग हासिल नहीं होता,
वो नाम हुस्न वालो में शामिल नहीं होता !!!!

हुस्न की चाहत ही खुदा की इबादत है,
मानते गर तुम, तो मैं काफिर नही होता !!!!

मुहब्बत पाने दिल में हिम्मत चाहिए हुज़ूर,
तोहफे की शक्ल में इश्क हाज़िर नही होता !!!!

खताएं तो होंगी , गर आशिकी ताज़ा है॥
क्योंकि जो सच्चा होता है, वो माहिर नहीं होता !!!!

पन्ने तो कई रंगे स्याही से, पर
जिसपर लिखा उसी पर जाहिर नही होता !!!!


(दोस्तों, आज सभी ब्लॉगर बंधुओं से माफ़ी मांगने का दिल कर रहा है, क्यूंकि पिछले कुछ समय से अतिव्यस्तता के चलते किसी भी रचना पर अपनी टिपण्णी नहीं दे पाया हूँ.. बहुत से रचनाकारों के तराशे हुए नायाब मोतियों को अपनी "google reader list " के जरिये पढ़ तो रहा हूँ पर उसके आनंद को व्यक्त नही कर पा रहा हूँ.......)

क्षमाप्रार्थी:-
शोभित जैन
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शोभित जैन
पिछली पोस्ट पर आदरणीया संगीता पुरी जी की एक टिपण्णी मिली....टिपण्णी क्या एक प्रश्न पुछा था

बस उसी का जबाब देने की कोशिश की है इस पोस्ट
में.......



मयस्सर नहीं था...

जिसके बिना ज़िंदगी में मेरा गुज़र नही था,

बस वही तो इस जहाँ मे मयस्सर नहीं था !!!!



दिल में संजो रखूं यादों को,

सुहाना ऐसा तो कोई सफर नही था !!!!



ऐश की ज़िंदगी बिताते रहे बंगलों में,

सुकून की साँस लेने कोई घर नहीं था !!!!



साँसे टूटी मंजिल से कुछ फासले पर,

चन्द लम्हों का खुदा को सबर नहीं था !!!!



ज़िंदगी भर भटका आसरे की तलाश में,

लोग कहते रहे की वो बेघर नहीं था !!!!
लेबल: 12 टिप्पणी |
शोभित जैन

फरबरी २००८ : चेन्नई एअरपोर्ट

लो भाई आख़िर एक किसान का बेटा आज एयरपोर्ट तक पहुँच ही गया...ट्रक्टर से एयरबस तक के सफर की कुछ खट्टी मीठी यादें अपने सूटकेस में भरकर, उसका एक हिस्सा हाथों में थामे हकीकत की ज़मीन पर घिसटते हुए मैं एअरपोर्ट की लॉबी मैं घुस गया....पर बहुत खोजने पर भी पहली उड़ान का उत्साह खोज नही पाया...शायद तन्हाई का अहसास उस उमंग पर भारी पड़ गया था........

नियत समय पर नियत स्थान से होते हुए नियत सीट पर बैठ गया...सब कुछ नियत....दिल मे बैठे बच्चे को खेलने की कोई जगह नहीं.........पता नही इंसान मशीनों को चला रहे है या मशीनें इंसानों को.....खैर......

नकली मुस्कान चेहरे पर चिपकाये लोगों के द्वारा स्वागत हुआ...और थोडी देर मे सीट बेल्ट बांधने का निर्देश गया......और उड़ने की खवाहिश ने ज़माने की रवायतों को अपने चारों ओर लपेट लिया........और फिर धीरे धीरे उड़ान की आकांक्षा मे ज़िन्दगी पहियों की तरह घिसने लगी......जैसे-जैसे यान रफ़्तार पकड़ रहा था चीज़ें पीछे छूट रही थीं......शायद गति का एक नियम ये भी है की हम जितने गति से आगे बढ़ते हैं उतनी ही गति से चीजें पीछे छूट जाती हैं, और जो चीज जितने नज़दीक होती है वो सबसे पहले और सबसे तेज़ जुदा होती है..और जो हमसे जितने फासले पर होता है उतना देर हमारे साथ रहता है........ धीरे - धीरे लुका- छिपी खेलने वाले मकान, फर्राटे से बाइक दौड़ने वाली सड़कें, और जश्न मनाने वाले शहर छोटे होते होते नज़रों से ओझल हो गए और पहुँच गए हम आकाश के अनंत ऊँचाई को मापने.........ऊँचाई चंद पलों की